उत्तराखंड ने 23वें साल में किया प्रवेश। राज्य की ये हैं उपलब्धियां-नाकामियां, पढ़ें आंदोलन की पूरी कहानी..

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Uttarakhand Foundation Day 2022. Hillvani News

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आज उत्तराखंड का स्थापना दिवस है। आज उत्तराखंड ने अपनी स्थापना के 22 साल पूरे कर लिए हैं और 23वें साल में प्रवेश कर लिया है। उत्तराखंड राज्य पाने के लिए आंदोलनकारियों ने लंबा संघर्ष किया था। लाठियां और गोलियां खाई। 42 शहादतों के बाद उत्तराखंड बना था। पहाड़ी राज्य उत्तरांखड बनाने को लेकर प्रदेशवासियों को लंबे संघर्ष का एक दौर देखना पड़ा। कई आंदोलनों और शहादतों के बाद 9 नवंबर 2000 को आखिरकार उत्तर प्रदेश से पृथक होकर एक अलग पहाड़ी राज्य का गठन हुआ। इस पहाड़ी राज्य को बनाने में कई राज्य आंदोलनकारियों का अहम योगदान रहा है। जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता है। उत्तराखंड राज्य गठन में आंदोलनकारियों के साथ ही पहाड़ी क्षेत्र की महिलाओं का भी अहम योगदान रहा। इस संघर्ष में कई महिलाओं ने अपनी शहादत दी थी। जिन्हें आज भी बड़े गर्व से याद किया जाता है। आखिर क्या है एक अलग राज्य बनने का इतिहास और कब कब एक उत्तराखंड को एक पृथक राज्य बनाने की मांग की गई, क्या रहा खास पढ़िए उत्तराखंड बनने के संघर्ष की कहानी। आइए आपको राज्य बनाने के लिए हुए संघर्ष की पूरा गाथा बताते हैं…

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सर्वप्रथम 1897 में सांस्कृतिक और पर्यावरणीय के अनुरूप हुई थी राज्य बनाने की मांगः उत्तराखंड को एक अलग पहाड़ी राज्य बनाने के लिए कई दशकों तक संघर्ष करना पड़ा। पहली बार पहाड़ी क्षेत्र की तरफ से ही पहाड़ी राज्य बनाने की मांग हुई थी। 1897 में सबसे पहले अलग राज्य की मांग उठी थी। उस दौरान पहाड़ी क्षेत्र के लोगों ने तत्कालीन महारानी को बधाई संदेश भेजा था। इस संदेश के साथ इस क्षेत्र के सांस्कृतिक और पर्यावरणीय आवश्यकताओं के अनुरूप एक अलग पहाड़ी राज्य बनाने की मांग भी की गई थी।
संयुक्त राष्ट्र के राज्यपाल को भेजा था ज्ञापनः जिसके बाद साल 1923 में जब उत्तर प्रदेश संयुक्त प्रांत का हिस्सा हुआ करता था उस दौरान संयुक्त प्रांत के राज्यपाल को भी अलग पहाड़ी प्रदेश बनाने की मांग को लेकर ज्ञापन भेजा गया। जिससे कि पहाड़ की आवाज को सबके सामने रखा जाए।
पं. जवाहरलाल नेहरू ने पहाड़ी राज्य गठन का किया था समर्थनः इसके बाद साल 1928 में कांग्रेस के मंच पर अलग पहाड़ी राज्य बनने की मांग रखी गयी थी। यही नहीं साल 1938 श्रीनगर गढ़वाल में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में शामिल हुए पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी अलग पहाड़ी राज्य बनाने का समर्थन किया था। इसके बाद भी जब पृथक राज्य नहीं बना तो साल 1946 में कुमाऊं के बद्रीदत्त पांडेय ने एक अलग प्रशासनिक इकाई के रूप में गठन की मांग की थी। आगे पढ़े…

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साल 1979 में अलग राज्य गठन का संघर्ष हुआ था तेजः इसके साथ ही करीब साल 1950 से ही पहाड़ी क्षेत्र एक अलग पहाड़ी राज्य की मांग को लेकर हिमाचल प्रदेश के साथ मिलकर ‘पर्वतीय जन विकास समिति’ के माध्यम से संघर्ष शुरू हुआ। साल 1979 में अलग पहाड़ी राज्य की मांग को लेकर क्षेत्रीय पार्टी उत्तराखंड क्रांति दल का गठन हुआ। जिसके बाद पहाड़ी राज्य बनाने की मांग ने तूल पकड़ा और संघर्ष तेज हो गया। इसके बाद 1994 में अलग राज्य बनाने की मांग को और गति मिली। तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने ‘कौशिक समिति’ का गठन किया। इसके बाद 9 नवंबर 2000 में एक अलग पहाड़ी राज्य बना।
42 से अधिक लोगों ने दी थी शहादतः पहाड़ी राज्य बनाने को लेकर एक लंबा संघर्ष चला। जिसके लिए कई आंदोलन किये ये कई मार्च निकाले गये। अलग पहाड़ी प्रदेश के लिए 42 आंदोलनकारियों को शहादत देनी पड़ी। अनगिनत आंदोलनकारी घायल हुए। पहाड़ी राज्य की मांग को लेकर उस समय इतना जुनून था कि महिलाएं, बुजुर्ग यहां तक की स्कूली बच्चों तक ने आंदोलन में भाग लिया।
महिलाओं का अलग राज्य गठन में रहा है अहम योगदानः उत्तराखंड राज्य गठन में आंदोलनकारियों के साथ ही पहाड़ी क्षेत्र की महिलाओं का भी अहम योगदान रहा। उत्तराखंड राज्य बनने से पहले गौरा देवी ने वृक्षों के कटान को रोकने के लिए चिपको आंदोलन शुरू किया था जो लंबे समय तक चला। इसके बाद जब अलग राज्य बनने को लेकर संघर्ष चल रहा था तो पहाड़ी क्षेत्र की महिलाओं ने भी इसमें बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। इस संघर्ष में कई महिलाओं ने अपनी शहादत दी थी। जिन्हें आज भी बड़े गर्व से याद किया जाता है। आगे पढ़े…

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बीते 22 साल में उत्तराखंड ने काफी कुछ उपलब्धियां हासिल की हैं लेकिन बहुत कुछ और भी ऐसा है जो अभी पाना है…
उत्तराखंड बनने के बाद की उपलब्धियां
औद्योगिक विकास ने पकड़ी रफ्तारः एनडी तिवारी सरकार के दौरान उत्तराखंड में औद्योगिक इकाइयों की स्थापना के लिए सिडकुल की स्थापना की गई थी। हरिद्वार, देहरादून और यूएसनगर जिले में स्थापित सिडकुल में पांच हजार के करीब बड़े और मध्यम श्रेणी के उद्योग स्थापित हुए। इससे पहले उत्तराखंड में बड़े उद्योगों की संख्या सौ भी नहीं थी। तिवारी सरकार के दौरान राज्यभर में हुए औद्योगिक विकास की वजह से उत्तराखंड देश के औद्योगिक मानचित्र पर स्थापित हो पाया। हालांकि, तिवारी सरकार के बाद औद्योगिक विकास की रफ्तार अपेक्षित रूप से नहीं बढ़ पाई।
सड़कों का तेजी के साथ हुआ विकासः उत्तराखंड बनने के बाद सड़कों के विकास में तेजी आई। केंद्र और राज्य के सहयोग से बनी सड़कों की वजह से यातायात सुगम हुआ। दूरदराज के गांवों तक भी सड़क पहुंची। वर्तमान में तीस हजार किमी सड़कें बन चुकी हैं। केंद्र सरकार के ऑलवेदर रोड प्रोजेक्ट की वजह से चारधाम रूट की सड़कों का कायाकल्प हुआ है। इससे चारधाम यात्रा के साथ स्थानीय लोगों का सफर भी आसान हुआ। इसके अलावा दिल्ली से दून के लिए बन रहे एक्सप्रेसवे, भारतमाला और पर्वतमाला परियोजना से सड़क तथा रोपवे संपर्क और बेहतर होने जा रहा है। आगे पढ़े…

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अर्थव्यवस्था ने नई ऊंचाइयों को छुआः उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था ने भी अलग राज्य बनने के बाद विकास किया। पूर्व में करीब 17 हजार करोड़ की अर्थव्यवस्था आज तीन लाख करोड़ रुपये पर पहुंचने वाली है। उत्तराखंड जब बना तो प्रति व्यक्ति आय 13,762 रुपये थी, जो अब 1.96 लाख रुपये के पार पहुंच गई है। हालांकि, इस अवधि में राज्य पर लगभग एक लाख करोड़ रुपये का कर्ज भी चढ़ा। वेतन और पेंशन का बोझ बढ़ रहा है। जबकि अवस्थापना विकास के लिए पर्याप्त बजट नहीं है। हालांकि, केंद्रीय योजनाओं के जरिए राज्य को अवस्थापना विकास के लिए काफी बजट मिला है।
हर घर तक पहुंची बिजली और पानीः उत्तराखंड का हर गांव और हर घर बिजली से रोशन है। ऊर्जा निगम के दावों के मुताबिक, हर घर बिजली कनेक्शन लग चुका है। बिजली कनेक्शनों की संख्या 27 लाख के पार पहुंच गई है। इसी क्रम में जहां सौभाग्य योजना में घरों को बिजली से जोड़ा गया। दीनदयाल उपाध्याय योजना के तहत पावर सप्लाई सिस्टम मजबूत किया गया। इसी प्रकार जल जीवन मिशन प्रोजेक्ट के तहत तेजी से काम हो रहा है। राज्य के कुल 15 लाख घरों तक नल से जल पहुंचाया जाना है। बीते दो साल में करीब दस लाख घरों में पानी पहुंचाया भी जा चुका है। आगे पढ़े…

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उत्तराखंड राज्य बनने के बाद की नाकामियां
पलायन पर रोक नहीं, खाली हो रहे गांवः
पहाड़ का पानी और जवानी रोकने के मकसद से बने उत्तराखंड में बीते 22 साल में 32 लाख से अधिक लोग पलायन कर चुके हैं। 2018 की उत्तराखंड पलायन आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक, राज्य गठन के बाद उत्तराखंड के 1,700 गांव वीरान हो चुके हैं। करीब हजार गांव ऐसे हैं, जहां सौ से कम लोग रहते हैं। बीते दस साल में 474 गांवों में आबादी 50% तक घट गई है। पलायन के चलते सामरिक चिंताएं बढ़ी हैं। पलायन रोकने को बने आयोग के पदाधिकारी खुद पौड़ी से पलायन कर दून सचिवालय में जम गए।
शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा में अपेक्षित सुधार नहींः शिक्षा मामले में उत्तराखंड की तस्वीर हाल में केंद्र सरकार के परफार्मेंस इंडेक्स से साफ हो चुकी है। उत्तराखंड शिक्षा के विभिन्न मानकों में महज चार साल में ही 18वें से 34वें स्थान पर पहुंच गया। उधर, स्वास्थ्य सेवाओं में भी सुधार नहीं हुआ है। लोगों को मजबूरी में प्राइवेट अस्पतालों का रुख करना पड़ रहा है। राज्य गठन के बाद 22 साल में न तो कभी विशेषज्ञ डॉक्टरों की कमी दूर हुई और न पैरामेडिकल और नर्सिंग के पद पूरी तरह भरे जा सके। हैरानी की बात है कि चार मेडिकल कॉलेज होने के बावजूद अधिकांश स्टाफ और डॉक्टर संविदा पर हैं। आगे पढ़े…

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उत्तराखंड में बदहाल कृषि और बागवानीः राज्य की भौगोलिक परिस्थितियों में विकास के लिए कृषि और बागवानी को महत्वपूर्ण माना जाता रहा है। खासकर, बागवानी को पर्वतीय क्षेत्रों में गेमचेंजर माना जाता है, लेकिन इस सेक्टर के हाल भी संतोषजनक नहीं। उत्तराखंड को 22 साल पूरे हो गए हैं और आज भी उत्तराखंड में हिमाचल और कश्मीर के सेब ही छाए रहते हैं। और तो और, विभाग अब तक अपने क्षेत्रफल, उत्पाद तक के विश्वसनीय आंकड़े भी जारी नहीं कर पाया है। हाल में उद्यान निदेशालय ने सभी डीएचओ को पत्र लिखते हुए वर्तमान आंकड़ों की प्रमाणिकता पर सवाल उठाए थे।
पर्यावरण पर चिंता के बादलः कोरोनाकाल में लॉकडाउन में सबकुछ थमने के बाद आबोहवा में जो सुधार देखने को मिला, उससे सबक लेकर दून, हल्द्वानी में लोगों की जागरूकता एवं सिस्टम के प्रयासों से प्रदूषण के स्तर में सुधार हुआ। ऋषिकेश, हरिद्वार, रुद्रपुर और काशीपुर में हालात नहीं सुधरे। केंद्र सरकार की ओर से राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (एनसीएपी) के तहत वर्ष 2026 तक वायुमंडल में प्रदूषणकारी कणों (पीएम) के स्तर में 40 प्रतिशत तक कमी का नया लक्ष्य रखा है। 132 शहरों का सर्वेक्षण होगा। उत्तराखंड से इनमें ऋषिकेश, देहरादून और काशीपुर शामिल हैं।

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