राजनीति: सब कुछ बिकता है। सैकड़ा-हज़ार-लाख का खेल नहीं, करोड़ों की है बात..

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उत्तराखंड: प्रदेश में आगामी विधानसभा चुनाव नजदीक आते जा रहे हैं। सभी राजनीतिक पार्टियां जोरशोर से चुनाव अभियान में जुट गई हैं। चुनाव माहौल के साथ राजनीति में सरगर्मी लगातार बढ़ती जा रहा है। साथ ही चुनाव करीब आते ही कई नेता अपने को असहज महसूस करने लगते हैं जिसके बाद शुरू होता है दल बदल का खेल.. वहीं विधानसभा चुनाव 2022 के नजदीक आते ही कई नेता इधर से उधर और उधर से इधर आसन खिसका चुके हैं और कई नेता अभी भी होंगे जो नजरें गाढ़े बैठे हैं। अभी कुछ दिनों पूर्व उत्तराखंड की राजनीति में चर्चा का बाजार गर्म हुआ कि गंगोत्री सीट से कांग्रेस के पूर्व विधायक बीजेपी जॉइन करने वाले हैं। प्रदेश में सभी की नजर इस दल बदल में टिक गई थी पर इस पर विराम खुद पूर्व विधायक विजयपाल सजवाण ने ही लगाया।

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गंगोत्री विधान सभा क्षेत्र के पूर्व विधायक विजयपाल सजवाण ने कांग्रेस पार्टी छोडऩे की अफवाहों पर विराम लगा दिया है। सजवाण ने कहा कि जब वर्ष 2016 में उन्हें कांग्रेस पार्टी छोडऩे के लिए 10 करोड़ व मंत्री पद का ऑफर मिला था। तब उन्होंने कांग्रेस नहीं छोड़ी, तो अब कैसे छोड़ सकते हैं। उन्होंने साफ तौर पर कहा कि 2016 के दलबदल में बड़े-बड़े प्रलोभनों के बीच जब हमारा विश्वास नहीं डगमगाया तो अब डूबते जहाज की सवारी से क्या हासिल होगा। इससे अंदाज लगाया जा सकता है कि राजनीति अब कोई सैकड़ा-हज़ार का खेल तो रहा नहीं , लाखों और करोड़ों की बात होती है ! तो जब कोई लाखों करोड़ों खर्च करके इस देश प्रदेश का नीति निर्माता बनता है तो निश्चित रूप से वो इसका रिटर्न भी चाहता है और फिर शुरू हो जाती है इस देश को और प्रदेश को लूट खाने की दौड़ ! अब विजयपाल सजवाण के बयान के बाद सबसे बड़ा तो सवाल यह भी बनता है कि क्या 2016 में हुई राजनीतिक हलचल नाराजगी थी या लालच….

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आज हालात एकदम अलग हैं ! सफल नेता तभी बन सकता है जब उसके पास अगला चुनाव लड़ने के लायक जमा पूँजी हो। अगर कोई दो चुनाव हार गया तो वो तो खाली हाथ ही हो जायेगा, लेकिन एक बार मौका मिलते ही वो अपनी भरपाई करने लग जाता है, आखिर क्यों ना करे ? कुछ सालों में देश प्रदेश की राजनीति अपना रंग बदल चुकी है यह कहना गलत नहीं होगा कि देश की राजनीति निम्न स्तर पर पहुंच चुकी है। विधायकों की ख़रीदफ़रोत तो आम सी बात हो गई है। जहां देखो जनता के चुने हुए प्रतिनिधि राजनीतिक मंडी में बिक रहे हैं वो भी ऊंचे दामों में और आमजन वोटर अपने को ठगा महसूस कर रहा है। यह सिर्फ और सिर्फ पैसों का खेल है जिसे जनता को बेबकूफ बना कर खेला जा रहा है।

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यह कहना भी गलत नहीं होगा कि राजनीति तो आज धारावाहिक कार्यक्रम हो गई है, जो कि बिना पैसे के चल ही नहीं सकती। सत्ता के चैनल युद्ध में वही नेता या पार्टी सफलता हासिल कर सकती है जिसके पास मोटा प्रायोजक हो। बिना प्रायोजक के सत्ता संघर्ष में सफल होना बहुत मुश्किल माना जाता है ! क्योंकि चुनाव में शराब व नकद बांटने से लेकर जाने क्या क्या उपलब्ध कराना पड़ता है और ये सब उपलब्ध कराने के लिए कोई व्यक्ति अपने घर को फूंक कर पैसा नहीं लगाएगा। सीधी सी बात है कि इसके लिए उसे इन्हीं स्रोतों से ही पैसा लगाना पड़ेगा और चुने जाने के बाद उनकी बात भी माननी ही पड़ेगी। यूं तो चुनाव आयोग के सुधारों ने बहुत कुछ बदला भी है ! लेकिन उसे पूरी तरह सफल नहीं कहा जा सकता क्योंकि आज भी प्रदेश स्तर के चुनावों में जिस तरह से पैसे का बोलबाला है वो किसी से छुपा हुआ नहीं है।

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