लोक-परम्पराओं का राजनीतिकरण..
लेखः डाॅ. कपिल पंवार, असिस्टेंट प्रोफेसर, हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय श्रीनगर।
उत्तराखंड की समृद्ध लोक परम्पराएं है। लोक परम्पराओं के साथ यहां अनेक मेले, पर्व, त्यौहार मनाये जाते हैं जो उल्लास और सौहार्द के प्रतीक होते हैं। लोक द्वारा उन प्राचीन परम्पराओं का हजारों वर्षों से वहन हुआ है। लेकिन समय के साथ आधुनिकता की दौड़, लोक-परम्पराओं पर अतिक्रमण कर ही है। वर्तमान परिपेक्ष्य में लोक परम्पराओं का राजनीतिकरण होना सबसे दुखःदायी है। आज स्थानीय मेलों से लेकर पर्व-त्यौहार की परम्पराओं को राजनीतिक चौला पहनाकर आयोजित करने का प्रचलन बढ़ रहा है। राजनीतिज्ञ भी अपनी पैठ बनाने के लिए इन्हीं मेले, त्यौहारों का सहारा लेते हैं जहां उन्हें बिना हाथ-पैर चलाये एकजुट जनता मिल जाती है।
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प्रायः ऐसे स्थलों पर जाकर वे लोक परम्पराओं के साथ कुछ फोटो लेकर जनता को अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयोजन पूरा करते हैं। वे इन स्थलों पर कुछ दानराशि जरूर देते हैं लेकिन बदले में केवल ऐसी दखल-अंदाजी करते हैं जिससे मेले-त्यौहारों में जनता का हर्षोल्लास बाधित होता है। ऐसे राजनेताओं को इतनी तो समझ होनी चाहिए कि ग्रामीण क्षेत्रों में मेले-त्योहार ग्रामीण महिलाओं, बुर्जुगों, बच्चों के लिए उनके रोजमर्रा से हटकर कुछ विशेष पल होते हैं। लोक-परम्पराएं ही होती है जब महिलाएं खेतीबाड़ी, जंगल, घर खलियान के काम कुछ समय अपने लोककला-संगीत, नृत्य के साथ उल्लास के लिए निकालती है।
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लेकिन वर्तमान में लोक परम्पराओं का राजनीतिकरण करके जब उन्हें मेले-त्यौहारों के मंच से नेता जी के भाषण सुनने को मिलते हैं तो उनकी आत्मा जरूर दुखती होगी। इसके कई अन्य दुखद परिणाम भी हैं। ऐसे लोक परम्पराओं के आयोजन पर एक वर्ग, दल की राजनीति का प्रभाव होने से विपक्षी वर्ग की भूमिका शून्य होती है, कई लोग अपनी प्रतिभागिता भी उचित नही समझते हैं और निष्कर्ष यही है कि इससे लोक परम्पराओं का क्षयः होता है।
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