उत्तराखंड: पहाड़ का हरा सोना कहे जाने वाला वृक्ष विलुप्ति की कगार पर, पहाड़ के लिए है बेहद उपयोगी..

0

उत्तराखंड: उत्तराखंड के मध्य हिमालयी क्षेत्र में बांज की विभिन्न प्रजातियां पाई जाती है जिनमें बांज, तिलौंज, रियांज व खरसू आदि प्रजातियां प्रमुख हैं। बांज का पेड़ मुख्यतः 1200 मीटर से लेकर 3500 मीटर की ऊंचाई के मध्य स्थानीय जलवायु, मिट्टी व ढाल की दिशा के अनुरूप पनपता है। इसकी लकड़ी का घनत्व 0.75 ग्राम प्रति घन सेंटी मीटर होता है तो यह अति मजबूत और सख्त होती है। पहाड़ का हरा सोना कहे जाने वाला बांज का पेड़ कई जगह अब विलुप्ति की कगार पर पहुंच चुका है। उत्तराखंड में बांज के जंगलों के ऊपर बड़ा खतरा मंडरा रहा है। पहाड़ की परिस्थिति के हिसाब से बांज के जंगल बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। उत्तराखंड के गढ़वाल और कुमाऊं के कई गांव में बांज के जंगल पूरी तरह समाप्त हो गए हैं या विलुप्ति की कगार पर हैं। बांज का पेड़ भूजल को समृद्ध करने में और पर्यावरण को समृद्ध रखने के लिए बेहद उपयोगी है।

बता दें कि कुछ समय पूर्व में सेंटर फॉर इकोलॉजी डेवलपमेंट एंड रिसर्च देहरादून, नेशनल सेंटर फॉर बायोलॉजिकल साइंस और इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन ने उत्तराखंड के जंगलों में शोध किया है। शोध में यह पाया गया कि उत्तराखंड में बांज के घने जंगलों में 22 फीसदी और कम घने जंगलों में 29 फीसदी की गिरावट आई है और उसी के विपरीत चीड़ के जंगल 74 फीसदी तक बढ़ गए हैं। बांज वर्षा के पानी को अवशोषित कर भूमिगत करता है और इसी की वजह से उत्तराखंड में जल स्त्रोतों और नदियों में जल प्रवाह बना रहता है। उत्तराखंड के लिए भौगोलिक परिस्थितियों के हिसाब से बेहद अहम पेड़ माने जाने वाले बांज के पेड़ों की कमी की वजह से पहाड़ों में खतरा मंडरा रहा है। पहले जंगलों में बांज के पेड़ अधिक होते थे इसी वजह से यही धरती में नमी बनी रहती थी। मगर अब जंगलों में बांज की संख्या बहुत कम हो गई है।

बांज के पेड़ों में कमी का एक कारण ईंधन व चारे के लिए बांज का अधांधुंध व गलत तरीके से उपयोग करना बांज के लिये सबसे ज्यादा घातक सिद्ध हुआ है। होता यह है कि बांज की पत्तियों व उसकी शाखा को बार -बार काटते रहने के कारण पेड़ पत्तियों से विहीन हो जाता है। इससे पेड़ की विकास क्रिया रुक जाती है और अन्ततः वह ठूंठ बनकर खत्म हो जाता है। बांज की पत्तियों को पशु के चारे के तौर पर भी इस्तेमाल में लाया जाता है। यह चारा जानवरों के लिए बेहद पौष्टिक माना जाता है। इसकी सूखी पत्तियां भी पशुओं के बिछाने के लिए प्रयोग होती है। वन विभाग के अनुसार उत्तराखंड में कई पर्वतीय क्षेत्रों के जंगलों में 80 फीसद चीड़ हैं, जबकि तीन फीसद से कम बांज है। चीड़ के जंगलों का सबसे बड़ा नुकसान यह है कि वहां अन्य प्रजातियां नहीं पनप पाती हैं। जबकि बांज के जंगल में और भी कई तरह की प्रजाति के पेड़-पौधे उगते हैं जो कि वन्यजीवों के साथ ही स्थानीय लोगों के लिए भी बेहद लाभदायक हैं।

उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में बांज के फायदे
1- पहाड़ों में गंज्याली (ओखली कुटनी) बांज की ही लकड़ी के बनते हैं, गंज्याली पहाड़ी जीवन से जुड़ा ऐक ऐसा हथियार है जिसके बिना धान की कुटाई नहीं की जा सकती यह चक्की का काम करती है ।
2- इसकी हरी पत्तियां पशुओं के लिये पौष्टिक होती हैं। बांज की पत्तियों के लिऐ पहाड़ की नारियां दूर दूर जाकर इसे अपने पशुओं का चारा लाती हैं। घर के नजदीक का बांज बरसात ओर ठण्ड के दिनो में चारा के लिऐ प्रयोग किया जाता है।
3- इसके तने के गोले से हल का निसुड़ सब से अधिक पसंद किया जाता है। बांज के तने से बनाया गया नसुड़ बहुत मजबूत होता है इसलिए पहाड़ों में इसका प्रयोग बहुत जादा मात्रा मे होता है।

4- इसकी सूखी पत्तियां पशुओं के बिछावन के लिये उपयोग की जाती हैं, पशुओं के मल मूत्र में सन जाने से बाद में इससे अच्छी खाद बन जाती है।
5- ईंधन के रूप में बांज की लकडी़ सर्वोतम होती है, अन्य लकडी़ की तुलना में इससे ज्यादा ताप और ऊर्जा मिलती है इसकी बारीक कैडिंया जल्दी जलती हैं ओर बड़ी लकड़ी आराम से जलती है। इस बांज के तने से बना कोयला दांत मंजन के प्रयोग में भी लाया जाता है यही नहीं इस कोयले पर सैकी हुई रोटी टेस्टी होती है।
6- बांज की लकड़ी के राख में दबे कोयले जो सुबहः चूल्हा जलने क लिए अंगार देते हैं जो पहाड़ी जीवन मे आग जलाने जैसे कष्ट से बचाती हैं।
7- ग्रामीण काश्तकारों द्वारा बांज की लकडी़ का उपयोग खेती के काम में आने वाले विविध औजारों यथा कुदाल, दरातीं के सुंयाठ, जुवा, जोल-पाटा के निर्माण में किया जाता है।

8- पर्यावरण को समृद्ध रखने में बांज के जंगलों की महत्वपूर्ण भूमिका है। बांज की जड़े वर्षा जल को अवशोषित करने व भूमिगत करने में मदद करती हैं जिससे जलस्रोतो में सतत प्रवाह बना रहता है बांज की लम्बी व विस्तृत क्षेत्र में फैली जडे़ मिट्टी को जकडे़ रखती हैं जिससे भू-कटाव नहीं होता।
9- बांज की पत्तियां जमीन में गिरकर दबती सड़ती रहती हैं, इससे मिट्टी की सबसे उपरी परत में हृयूमस (प्राकृतिक खाद) का निर्माण होता रहता है।
10- बांज का पेड़ बड़ा ही छांवदार होता है इसकी छांव में बैठने पर ठंडक महसूस होती है। बांज की जड़ी का पानी शुद्ध होता है। क्योंकि यह लंम्बी दूरी तक फैली हुई रहती हैं बांज के पेड़ पर होने वाले बीज लिक्वाल औषधी गुणों से भरपूर होता है।

बांज का पौधा कैसे तैयार किया जाता है
जीवनदायी बांज के पेड़ पर होने वाले बीज में जिनको लिक्वाल कहा जाता है। अच्छी प्रजातियों के पक्के बीज लिक्वाल (अकॉर्न्स) को बोने से पौध तैयार होता है। इसका उगने का सफलतम रेट 60-62% होता है। इसलिए एक हजार पौध के लिए 1600 बीज बोने होते हैं। जमीन में नमी बनी रहे लेकिन पानी जमा न हो इसका विशेष ध्यान रखना होता है। जब इसके 8 से 10 इंच लम्बे पौधे हो जाते हैं तो इन पौध को खेत या भूमि में 15 फ़ीट की दूरी पर लगाया जाता है। इससे एक सुन्दर बांज पेड़ बन तैयार हो जाता है। बांज एक सख्त लकड़ी वाला पेड़ है तो पौधा धीरे धीरे बढ़ता है और उपयोग में लाने के लिए कम से कम 25 साल लग जाते हैं। इस बीच इस भूमि में अन्य फसलें उगाई जा सकती हैं और भूमि का पूरा लाभ लिया जा सकता है। उत्तराखंड में पलायन के कारण गांव में बहुत सी कृषि भूमि बिना उपयोग के पड़ी हुई है और कई जगह ऊंचाई वाले क्षेत्रों में पेड़ विहीन भूमि भी है ऐसी भूमि में बांज के जंगल लगाए जा सकते है।

Rate this post

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

हिलवाणी में आपका स्वागत है |

X