उत्तराखंडः धूमधाम से मनाया गया प्राचीन लाई मेला.. जानें क्या है भाद्रपद की 5 गते को मेला मनाने की परंपरा..
ऊखीमठः 6 माह सुरम्य मखमली बुग्यालों में प्रवास करने वाले भेड़ पालकों का लाई मेला धूमधाम से मनाया गया। भेड़ पालकों का लाई मेला प्रतिवर्ष भाद्रपद की पांच गते को मनाने की परम्परा है। भेड़ पालकों का लाई मेला सीमान्त गांवों के ऊंचाई वाले बुग्यालों में मनाया जाता है तथा लाई मेले के बाद भेड़ पालक और अधिक ऊंचाई वाले इलाकों के लिए रवाना हो जाते हैं तथा दीपावली के निकट घर लौटते हैं। भेड़ पालकों के लाई मेले में भेड़ पालकों के परिजन व ग्रामीण बढ़-चढ़ कर भागीदारी करते हैं। भेड़ पालकों के दाती त्यौहार व लाई मेला प्रमुखता से मनाया जाता है। लाई मेले में भेडों के ऊन की छटाई की जाती है जबकि दाती त्यौहार रक्षाबंधन के निकट कुल पुरोहित द्वारा निर्धारित तिथि पर मनाया जाता है तथा दाती त्यौहार में भेड बकरियों के सेनापति नियुक्त करने की परम्परा है। लाई मेला पवाली कांठा, टिंगरी, मदमहेश्वर, विसुणीताल, शिला समुन्द्र, कुल वाणी, सहित सीमान्त गाँव त्रियुगीनारायण, तोषी, चौमासी, चिलौण्ड, रासी के ऊपरी हिस्सों में मनाया जाता है।
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जानकारी देते हुए मदमहेश्वर घाटी विकास मंच पूर्व अध्यक्ष मदन भटट् ने बताया कि भेड़ पालकों का लाई मेला धूमधाम से मनाने की परम्परा प्राचीन है तथा लाई मेले में ऊन की छटाई की जाती है। उन्होंने कहा कि यदि प्रदेश सरकार ऊन व्यवसाय को बढ़ावा देती है तो लाई मेला भव्य रूप से मनाया जा सकता है तथा भेड़ पालकों की आर्थिकी और अधिक सुदृढ़ हो सकती है। भेड़ पालक प्रेम भटट् ने बताया कि ऊन का व्यवसाय धीरे-धीरे कम होने के कारण भेड़ पालकों की आजीविका खासी प्रभावित होने लगी है इसलिए लाई मेले की छटाई की गयी ऊन की लागत नहीं मिलने से भेड़ पालन व्यवसाय से ग्रामीण विमुख होते जा रहे हैं। भेड़ पालक बीरेन्द्र धिरवाण ने बताया कि भेड़ पालक आज भी लाई मेले को भव्य रूप से मनाते है तथा लाई मेले में भेड़ पालकों के परिजन, रिश्तेदार व ग्रामीण बढ़-चढकर भागीदारी करते हैं।
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