परंपराः टिहरी राजपरिवार के राजगुरु के हाथों ही क्यों खुलवाए जाते हैं बद्रीनाथ धाम के कपाट?
बर्फ की फुहारों और पुष्पवर्षा के बीच आज बृहस्पतिवार को सुबह 7 बजकर 10 मिनट पर वृष लग्न में बदरीनाथ धाम के कपाट खोल दिए गए। कपाट खुलने के दौरान चारों ओर वैदिक मंत्रोचारण और जय बदरीनाथ का जयघोष सुनाई दे रहा था। वहीं आज हम आपको बद्रीनाथ कपाट खुलने की परंपरा के बारे में बताने जा रहे है कि आखिर क्यों बदरीनाथ धाम के कपाट टिहरी राजा के राजगुरु के हाथों ही खुलवाए जाते हैं? आपको बता दें कि यह परंपरा सदियों से चल रही है। बृहस्पतिवार को भी टिहरी महाराज मनुजेंद्र शाह के प्रतिनिधि के रूप में राजगुरु माधव प्रसाद नौटियाल के हाथों बदरीनाथ धाम के कपाट खोले गए साथ ही इस दौरान टिहरी रियासत के कुंवर भवानी प्रताप भी उपस्थित रहे।
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जानकारों के मुताबिक बताया जाता है कि नवीं शताब्दी के 888 वर्ष में जब गढ़वाल के चांदपुर गढ़ी में भानु प्रताप राजा थे तो गुजरात की धारा नगरी के शक्ति संपन्न पंवार वंशीय राजकुमार कनक पाल बदरीनाथ धाम की यात्रा पर आ रहे थे। उनके राजकीय आतिथ्य में राजा भानु प्रताप ने अपना दल उनके स्वागत के लिए हरिद्वार भेजा। कनक पाल एक धर्मनिष्ठ राजकुमार थे। उनकी बदरीनाथ धाम में गहरी आस्था थी, जिससे उन्हें बोलांदा बदरी (बदरीनाथ भगवान से संवाद करने वाला) भी कहते थे। राजा भानु प्रताप ने अपनी पुत्री का विवाह कनकपाल के साथ संपन्न कराया और उनसे यहीं सम्राज्य स्थापित करने का आग्रह किया।
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कनक पाल ने तब टिहरी राजवंश (त्रिहरी अपभ्रंश टिहरी राजवंश) की स्थापना की और 1803 तक लगातार यहां साम्राज्य रहा और साम्राज्य का विस्तार भी किया। टिहरी साम्राज्य सुदूर कुमाऊं तक और दक्षिण में सहारनपुर तक फैल गया। टिहरी राज दरबार से ही पुरानी परंपराओं के अनुसार बदरीनाथ धाम की पूजा व्यवस्था और आर्थिक प्रबंधन का संचालन किया गया। 1803 में गोरखा युद्ध में उसे पराजय का सामना करना पड़ा तब राजा प्रद्युमन शाह मारे गए। सुदर्शन शाह को सेना ने सकुशल वापस निकाल लिया। 1815 में अंग्रेजों की मदद से सुदर्शन शाह ने गोरखाओं से अपना खोया राज्य वापस ले लिया। लेकिन यहां टिहरी रियासत का विभाजन हुआ पूर्वी गढ़वाल जिसे ब्रिटिश गढ़वाल कहा गया, कुमायूं का भाग तथा कालसी से पश्चिम का क्षेत्र व देहरादून को संधि द्वारा अंग्रेजों को दे दिया गया।
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मंदिर का आर्थिक संकट
जब 1924 में भयंकर महामारी हुई तब बदरीनाथ धाम में यात्रियों की संख्या बहुत कम हो गई थी। रावल को भोजन का संकट खड़ा हो गया, कोई सरकारी मदद भी नहीं मिली। तब से राजा ने प्रतिवर्ष 5000 रुपये की आर्थिक सहायता बदरीनाथ मंदिर को देना शुरू किया। वर्ष 1948 के बाद उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से बदरीनाथ धाम का प्रबंध स्वयं अपने हाथ में लिया गया, लेकिन बदरीनाथ मंदिर के धार्मिक प्रबंध, पूजा मुहूर्त और रावल की नियुक्ति के संबंध में टिहरी रियासत को प्राप्त अधिकारों को पूर्ववत संरक्षित रखा। वर्ष 1939 में बदरीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति का गठन हुआ जिसमें टिहरी राजवंश की परंपराएं पूर्व की भांति बरकरार रखने की बात लिखी गई है। जानकार बताते हैं कि टिहरी राजा के हाथों से ही बदरीनाथ धाम के कपाट खोले जाने की परंपरा थी। बाद में अधिक दूरी होने के कारण राजा के प्रतिनिधि के रूप में उनके राजगुरु प्रतिवर्ष कपाट खुलने पर बदरीनाथ धाम पहुंचते हैं और कपाट खोलते हैं।
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बद्रीनाथ धाम में टिहरी रियासत की परम्परा
बद्रीनाथ धाम के शीतकालीन कपाट बंद हो जाने के बाद प्रत्येक वर्ष बसंत पंचमी के दिन राजमहल नरेंद्र नगर में राजपुरोहित पूजा अर्चना करने के बाद शुभ मुहूर्त की गणना करते हैं। इसी दिन बद्रीनाथ मंदिर की पूजा अर्चना के लिए “गाडू घडा कलश” अर्थात तिल का तेल निकालने का मुहूर्त भी निकाला जाता है। बद्रीनाथ मंदिर समिति बसंत पंचमी के दिन इस कलश को राजमहल को सौंपती है।
क्या है गाडू घडा कलश
महारानी तथा राजपरिवार व रियासत की लगभग सौ सुहागन महिलाओं के द्वारा सिल बट्टे पर पिस कर तिल का तेल निकाला जाता है। जिसे 25 .5 किलो के घडे में भरकर मंदिर समिति को सौंपा जाता है। महल में निकाले गए इस तिल के तेल से बद्रीनाथ धाम का दीप प्रज्वलित किया जाता है। इसी तिल से भगवान के विग्रह रूप में लेप भी किया जाता है। यह यात्रा राजमहल से बद्रीनाथ तक 7 दिन में पूरी होती है। इसे गाडू घडा़ कलश यात्रा कहते हैं।
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नौटियाल हैं राजा के प्रतिनिधि
बद्रीनाथ धाम के कपाट खोलने में पहले राजा स्वयं मौजूद रहते थे लेकिन समय के साथ उनकी उपस्थिति कठिन हुई तो चांदपुर गढ़ी के पुरोहित परिवार नौटी जनपद चमोली के नौटियाल परिवार जिसमें वर्तमान में राजगुरु माधव प्रसाद नौटियाल मौजूद रहे। तथा अन्य पुरोहित बारी बारी बद्रीनाथ मंदिर के कपाट खोलने में उपस्थित रहते हैं और धार्मिक प्रबंधों की निगरानी करते हैं।
रावल की नियुक्ति
अब हालांकि रावल मंदिर समिति के कर्मचारी होते हैं लेकिन परंपरा से टिहरी के राजा रावल के परामर्श से उप रावल की नियुक्ति करते हैं। उप रावल ही रावल का उत्तराधिकारी होता है। रावल को हटा देने का अधिकार राजा के पास नहित था। इस परंपरा का वर्तमान में भी निर्वाह किया जा रहा है।
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