उत्तराखंड: यहां त्यौहार मनाने का अंदाज और परंपराएं है सबसे निराली, देशभर में अनूठी संस्कृति के लिए है विख्यात..

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उत्तराखंड के देहरादून जनपद के जौनसार बावर क्षेत्र में बूढ़ी दिवाली पर्व हर्ष व उल्लास के साथ मनाया जा रहा है। गांव-गांव में लोक गीतों की धुनों पर नाचते गाते ग्रामीण पर्व की खुशीयां बांटते हैं। जनजाति क्षेत्र जौनसार में तीज-त्योहार मनाने का अंदाज और परंपराएं निराली हैं। देशभर में अपनी अनूठी संस्कृति के लिए विख्यात जौनसार-बावर में देश की दीवाली के एक माह बाद पांच दिवसीय बूढ़ी दीवाली मनाई जाती है। लेकिन इस दौरान न पटाखे का शोरगुल और न ही आतिशबाजी देखने को मिलती है। इससे वातावरण भी प्रदूषित नहीं होता। यहां पर सिर्फ इको फ्रेंडली दीवाली मनाई जाती है।

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देशवासी प्रकाश पर्व दीपावली का त्योहार धूमधाम से मनाते है, लेकिन वहीं जौनसार के करीब दो सौ गांवों में दीपावली के ठीक एक माह बाद परपंरागत तरीके से पहाड़ी बूढ़ी दीवाली मनाई जाती है। हालांकि क्षेत्र के करीब डेढ़ सौ से अधिक गांवों में देशवासियों के साथ नई दीवाली मनाने की शुरुआत भी कुछ सालों पहले हो चुकी है। लेकिन अंदाज वही पुराना इको फ्रैंडली दीवाली का ही है। यहां की दीवाली पूरे देश को प्रदूषणरहित दीवाली मनाने का संदेश भी देती है। जनजाति क्षेत्र जौनसार-बावर में हर तीज-त्योहार मनाने का अंदाज हटकर है।

पहाड़ी बूढ़ी दीवाली मनाने की परंपरा
दीवाली मनाने के बाद पहाड़ में बूढ़ी दीवाली मनाने के पीछे लोगों के अपने अलग तर्क हैं। जनजाति क्षेत्र के बड़े-बुर्जुर्गों की माने तो पहाड़ के सुदूरवर्ती ग्रामीण इलाकों में भगवान श्रीराम के अयोध्या आगमन की सूचना देर से मिलने के कारण लोग एक माह बाद पहाड़ी बूढ़ी दीवाली मनाते हैं। जबकि अधिकांश लोगों का मत है कि जौनसार-बावर कृषि प्रधान क्षेत्र होने की वजह से यहां लोग खेतीबाड़ी के कामकाज में बहुत ज्यादा व्यस्त रहते हैं। जिस कारण वह इसके ठीक एक माह बाद बूढ़ी दीवाली का जश्न परपंरागत तरीके से मनाते हैं। यहां पहले पहले दिन छोटी दीवाली, दूसरे दिन रणदयाला, तीसरे दिन बड़ी दीवाली, चौथे दिन बिरुड़ी व पांचवें दिन जंदौई मेले के साथ दीवाली पर्व का समापन होता है।

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