पंचतत्व में विलीन हुए शहीद चंद्रशेखर, बेटियों ने दी मुखाग्नि। शहीदी के 38 साल बाद हुआ अंतिम संस्कार..
शहीदी के 38 साल बाद जब शहीद लांसनायक चंद्रशेखर हर्बोला का शव जब उनके आवास पर पहुंचा तब वहां मौजूद सभी की आंखों में आंसू आ गए। उनको अंतिम विदाई देने के लिए लोगों की भारी भीड़ उमड़ पड़ी थी। राजकीय सम्मान के साथ शहीद का अंतिम संस्कार किया गया। लंबे इंतजार के बाद शहीद का पार्थिव शरीर बुधवार को हल्द्वानी के आर्मी मैदान पहुंचा। सेना के वरिष्ठ अफसरों सहित प्रशासन के अधिकारियों ने उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की। पार्थिव शरीर घर के आंगन में शव पहुंचते ही ‘भारत माता की जय’और ‘शहीद चंद्रशेखर अमर रहे’ के नारों से पूरा मोहल्ला गूंज उठा। तिरंगे में लिपटे शहीद का पार्थिव शरीर घर में पहुंचते ही पत्नी और बेटियां सहित परिजन उससे लिपटकर अपने आंसू नहीं रोक पाए। यह दृश्य देखकर लोगों की आंखें भर आईं। लोगों ने शहीद को फूल बरसाकर श्रद्धांजलि दी। शहीद की पत्नी शांति देवी और बेटियों की आंखों से आंसू नहीं रुक रहे थे और माहौल गमगीन हो गया था। इसके बाद भारी संख्या में लोग पैदल अंतिम यात्रा में शामिल हुए। राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया गया। भाई पूरन चंद्र, भतीजा ललित हरबोला और दोनों बेटियां बबिता और कविता ने शहीद को मुख्याग्नि दी।
लांसनायक का पार्थिव शरीर 38 साल बाद मिला
आपको बता दें कि सियाचिन ग्लेशियर में हिमस्खलन में दबकर शहीद हुए लांसनायक चंद्रशेखर हर्बोला का पार्थिव शरीर 38 साल बाद मिला है। मूल रूप से उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के रानीखेत तहसील अंतर्गत बिन्ता हाथीखुर गांव निवासी लांसनायक चंद्रशेखर हर्बोला 1971 में कुमाऊं रेजिमेंट में भर्ती हुए थे। मई 1984 को बटालियन लीडर लेफ्टिनेंट पीएस पुंडीर के नेतृत्व में 19 जवानों का दल ऑपरेशन मेघदूत के लिए निकला था। 29 मई को भारी हिमस्खलन से पूरी बटालियन दब गई थी, जिसके बाद उन्हें शहीद घोषित कर दिया गया था। उस समय लांसनायक चंद्रशेखर की उम्र 28 साल थी।
शहीद पिता के दर्शन को बेताब थीं बेटियां
लांसनायक चंद्रशेखर 38 साल पहले लापता हुए थे, तब उनकी बड़ी बेटी 4 साल और छोटी बेटी डेढ़ साल की थी। तब से इन बेटियों ने सिर्फ पिता का नाम सुना था। आज बड़ी बेटी करीब 42 साल और छोटी 39 साल की है। अब दोनों बेटियां पिता का चेहरा देखने के लिए बेताब थीं। शहीद का शव मिलने से एक ओर जहां परिवार गमगीन है, वहीं परिजनों को अंतिम दर्शन करने का संतोष भी है। शहीद चंद्रशेखर का पार्थिव शरीर मंगलवार को घर नहीं पहुंच सका था। शहीद लांसनायक चंद्रशेखर का पार्थिव शरीर आज 12:15 बजे हल्द्वानी पहुंचा। शहीद को श्रद्धांजिल देने के लिए यहां लोगों को सैलाब उमड़ पड़ा। इस दौरान उनके परिजनों को शहीद का चेहरा नहीं दिखाई गया। लेकिन अंतिम दर्शन के लिए परिजनों को केवल दस मिनट का समय ही मिला।
बेटियों को याद नहीं पिता का चेहरा
शांति देवी बताती हैं कि पति की शहादत के समय बड़ी बेटी कविता चार साल जबकि दूसरी बेटी बबिता ढाई साल रही होगी। दोनों बेटियों को याद भी नहीं था कि उनके पिता कौन और कैसे हैं। काफी मशक्कत के बाद पति की एक तस्वीर मिल पाई, जिसे देखकर ही दोनों बेटियों ने पिता की कमी पूरी की।
1992 में अल्मोड़ा से आए हल्द्वानी
शांति देवी बताती हैं कि वह पति की शहादत के आठ साल बाद तक गांव में ही रहीं। इसके बाद दोनों बेटियों की शिक्षा के लिए 1992 में हल्द्वानी आना पड़ा। यहां भाई नन्दन जोशी, कैलाश जोशी, गिरीश जोशी के सहयोग से बेटियों को शिक्षा दी। आज बड़ी बेटी कविता उनके साथ ही रह रही है, जबकि छोटी बेटी बबिता नोएडा में है।
आर्मी हेडक्वार्टर से आए फोन से दिल तेजी से धड़कने लगा
वीरांगना शांति देवी और उनकी बेटी रोज की तरह अपने दैनिक काम में मशगूल थीं। एकाएक फोन की घंटी बजी तो सामने वाले ने शहीद लांसनायक चंद्रशेखर का नाम लेकर जानकारी लेनी चाही। आर्मी हेडक्वार्टर से आए फोन से एक बार फिर से उनका दिल तेजी से धड़कने लगा। मन में तमाम सवाल उठने लगे। वीरांगना शांति देवी बताती हैं कि शनिवार को वह बड़ी बेटी कविता और उसके बच्चों के साथ दैनिक कार्यों में जुटी थीं। इसी बीच फोन की घंटी बजी और बताया कि वह 19 कुमाऊं रेजिमेंट से बोल रहे हैं। उन्होंने फोन करने का कारण पूछा तो जवाब मिला कि उन्हें सियाचिन ग्लेशियर से एक शव मिला है, जिसकी पहचान के लिए आपको फोन किया गया है। यह सुनते ही उनके पैरों तले जमीन खिसक गई। सामने से बताया गया कि शव चंद्रशेखर नामक जवान का है, लेकिन हादसे में चंद्रशेखर नाम के दो जवान शामिल थे। शव की पुष्टि के लिए उन्हें अपने पति चंद्रशेखर हर्बोला का बैच नंबर बताना है। लड़खड़ाती जुबान से शांति देवी ने फोन करने वाले को पति का बैच नंबर 4164584 बताया। सामने वाले ने बताया कि शव आपके ही पति का है। यह सुनकर उनके पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई। उनके सामने 38 साल पुराने जख्म एक बार फिर हरे हो गए।
जिंदा लौटने की उम्मीद 38 साल बाद टूटी
एक पत्नी के लिए पति के शव के अंतिम दर्शन किए बिना उसे मृत मान लेना आसान नहीं होता है। ऐसे हालात में उसके मन में हर बार पति के वापस लौटने की उम्मीद जिंदा रहती है। इसी उम्मीद में वह पूरी जिंदगी गुजार देती है। ऐसी ही उम्मीद शहीद लांसनायक चंद्रशेखर हर्बोला की वीरांगना शांति देवी 38 साल तक लगाए बैठी थीं। इस दौरान नाते रिश्तेदार उन्हें कहते कि कहीं चंद्रशेखर पाकिस्तान की जेल में तो बंद नहीं…। यह सुनकर शांति को दुख नहीं, बल्कि आस बंधती थी कि उनके पति के वापस लौटने की उम्मीद जिंदा है। लेकिन पति का शव मिलने की सूचना से उनकी 38 साल से बंधी उम्मीद टूट गई। वीरांगना शांति देवी आज पति का शव मिलने की खबर सुनकर दुखी हैं, लेकिन उनको इस बात की तसल्ली है कि वह अपने पति के पार्थिव शरीर के अंतिम दर्शन कर पाएंगी। दर्दभरी जुबान में बताती हैं कि उनका विवाह 18 साल की उम्र में हो गया था। महज 23 साल की थीं, जब खबर आई कि उनके पति सियाचिन ग्लेशियर में दबकर शहीद हो गए, लेकिन उनके दिल ने कभी नहीं माना कि वह अब इस दुनिया में नहीं रहे। वह इन 38 सालों तक पति के जिंदा लौटने की उम्मीद लगाए बैठी रहीं। इस दौरान लोगों से मुलाकात होती तो पति का जिक्र भी होता। कोई कहता कहीं पाकिस्तानी सेना ने उन्हें बंदी तो नहीं बना लिया। बताया कि कभी उनकी बात उन्हें कड़वी नहीं लगी, बल्कि पति के वापस लौटने की उम्मीद बढ़ती रही।