अलविदा दिवाकर भट्ट.. यूं ही नहीं मिली थी फील्ड मार्शल की उपाधि, जानिए उनके प्रमुख आंदोलन और संघर्षगाथा..
वरिष्ठ राज्य आंदोलनकारी, उक्रांद के पूर्व केंद्रीय अध्यक्ष, पूर्व कैबिनेट मंत्री व उत्तराखंड फील्ड मार्शल दिवाकर भट्ट का राजकीय सम्मान के साथ खड़खड़ी श्मशान घाट पर अंतिम संस्कार किया गया। जिलाधिकारी मयूर दीक्षित मुख्यमंत्री के प्रतिनिधि बनकर पुष्प चक्र अर्पित किए। उमड़े जन सैलाब ने भी पुष्प अर्पित कर अंतिम विदाई दी। बेटे ललित भट्ट ने अपने पिता को मुखाग्नि दी। लंबे समय से अस्वस्थ चल रहे पूर्व कैबिनेट मंत्री दिवाकर भट्ट का मंगलवार की शाम निधन हो गया था। उन्होंने अपने हरिद्वार स्थित शिवालोक कॉलोनी में आवास पर अंतिम सास ली। यूकेडी के शीर्ष नेता के निधन से पार्टी कार्यकर्ताओं समेत राज्यभर में शोक व्याप्त हो गया। वहीं, राजनीतिक दलों ने भी इसे उत्तराखंड के लिए अपूर्णीय क्षति बताया है। परिजनों के अनुसार, लगातार पांच बार ब्रेन स्ट्रोक के चलते वह काफी अस्वस्थ हो चुके थे। निधन से पूर्व सुबह देहरादून के निजी अस्पताल से उन्हें हरिद्वार स्थित घर लाया गया था। इसके बाद शाम को चार बजे उनके निधन की सूचना आई।
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बड़े संघर्षों के बाद मिली उत्तराखंड फील्ड मार्शल की उपाधि
लंबे व कड़े संघर्षों से निकले दिवाकर भट्ट को उत्तराखंड फील्ड मार्शल की उपाधि यूं ही नहीं मिली थी। उत्तराखंड के गांधी कहे जाने वाले इंद्रमणि बडोनी ने 1993 में श्रीनगर में हुए उत्तराखंड क्रांति दल के अधिवेशन में उनके तेवर, विचार और आंदोलन के प्रति समर्पण को देखते हुए उन्हें यह सम्मान दिया था। भट्ट के निधन के साथ उत्तराखंड राज्य आंदोलन ने अपना एक सबसे जुझारू सिपाही खो दिया। दिवाकर भट्ट का राजनीतिक और आंदोलनकारी सफर संघर्षों से भरा था। 1965 में श्रीनगर में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी प्रताप सिंह नेगी के नेतृत्व में वह पहली बार उत्तराखंड आंदोलन से जुड़े थे। इसके बाद उनका जीवन लगातार राज्य निर्माण और पहाड़ की समस्याओं के समाधान को समर्पित रहा। 1976 में उन्होंने उत्तराखंड युवा मोर्चा का गठन किया। जिसने आगे चलकर पूरी राज्य आंदोलन की दिशा तय की। इसी वर्ष वह बदरीनाथ से दिल्ली तक विशनपाल सिंह परमार, मदन मोहन नौटियाल के नेतृत्व में पदयात्रा में भी शामिल हुए थे।
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‘घेरा डालो-डेरा डालो’ नारा राज्य आंदोलन का स्वर बन गया
दिवाकर भट्ट जी ने 1994 में नैनीताल और पौड़ी में बड़े आंदोलन खड़े किए थे। जिसमें उत्तराखंड राज्य निर्माण, वन कानूनों में संशोधन, पंचायतों का परिसीमन क्षेत्रफल के आधार पर करने, केंद्रीय सेवाओं में पर्वतीय क्षेत्र के लोगों को 2 प्रतिशत आरक्षण लागू करने, पर्वतीय क्षेत्र में जाति के बजाय क्षेत्रफल के आधार पर आरक्षण देने और हिल कैडर को सख्ती से लागू करने की पांच सूत्री मांग प्रमुख थी। तब दिवाकर भट्ट का नारा ‘घेरा डालो-डेरा डालो’ राज्य आंदोलन का स्वर बन गया था। वह अक्सर यह नारा गुनगुनाते थे और युवाओं को संघर्ष के लिए प्रेरित करते थे।
खैट पर्वत पर किया उपवास
दिवाकर भट्ट की आंदोलनकारी तपस्या का एक बड़ा अध्याय श्रीयंत्र टापू आंदोलन (1995) और फिर खैट पर्वत उपवास रहा। 15 सितंबर 1995 को वह 80 वर्षीय सुंदर सिंह के साथ खैट पर्वत की 6 किलोमीटर लंबी खड़ी चढ़ाई तय कर उपवास पर बैठे। खैट पर्वत समुंद्रतल से लगभग 3200 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। वहां स्थिति गंभीर होने लगी तो प्रशासन को वहां पहुंचना मुश्किल हो गया था। हालात को देखते हुए 15 दिसंबर 1995 को केंद्रीय गृह मंत्रालय ने उन्हें दिल्ली वार्ता के लिए बुलाया। दिल्ली में आश्वासन तो मिला, लेकिन समाधान नहीं निकला। इसके बाद वह जंतर-मंतर पर कई दिनों तक उपवास पर बैठे और आंदोलन जारी रखा।
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राजनीति में उनकी सादगी की मिसाल
दिवाकर भट्ट का जन्म 1 अगस्त 1946 को सुपार गांव, पट्टी बडियार गढ़, टिहरी गढ़वाल में हुआ। वे लंबे समय से हरिद्वार में निवासरत थे। 2007 में दिवाकर भट्ट देवप्रयाग विधानसभा से विधायक निर्वाचित हुए और राज्य सरकार में राजस्व एवं खाद्य आपूर्ति मंत्री बने। मंत्री रहते हुए भी वे पहाड़ की समस्याओं, पलायन और विकास असमानता के मुद्दों पर लगातार मुखर रहे। राजनीति में भी उनकी सादगी की मिसाल रही। साल 1982 से 1996 तक तीन बार कीर्तिनगर के ब्लॉक प्रमुख रहे। एक बार जिला पंचायत सदस्य रहे। साल 1999 और 2017 में उक्रांद के केंद्रीय अध्यक्ष भी रहे। साल 2012 का चुनाव उन्होंने भाजपा के चुनाव निशान पर लड़ा और चुनाव हारे। फिर साल 2017 में निर्दलीय चुनाव लड़े और मामूली अंतर से हार गए। दिवाकर भट्ट के निधन से राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्रों में शोक की लहर है। उत्तराखंड आंदोलन से जुड़े कार्यकर्ताओं, जनप्रतिनिधियों और आम जनता ने उन्हें भावपूर्ण श्रद्धांजलि दी और कहा कि उनका जाना केवल एक नेता का निधन नहीं, बल्कि एक युग का अंत है। दिवाकर भट्ट का संघर्ष, उनकी आवाज और पहाड़ के प्रति उनका समर्पण हमेशा उत्तराखंड की चेतना में जीवित रहेगा।
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