उत्तराखंड में अगर UCC लागू हुआ तो.. खत्म हो जाएंगे मुस्लिम पर्सनल लॉ के ये 7 अधिकार..

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उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर धामी ने ऐलान कर दिया कि वह जल्दी से जल्दी उत्तराखंड में यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करेंगे। इसके लिए उनकी सरकार विधानसभा का स्पेशल सेशन बुलाने पर विचार कर रही है। उत्तराखंड में यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने के लिए भाजपा सरकार दिन रिटायर्ड जस्टिस रंजना प्रकाश देसाई की अध्यक्षता में कमीशन बनाया था। मुख्यमंत्री पुष्कर धामी ने बताया कि जस्टिस रंजना देसाई का कमीशन दो फरवरी को उच्च पर अपनी रिपोर्ट राज्य सरकार को देगा। इसके बाद विधानसभा का स्पेशल सेशन बुलाकर इसका कानून लाया जाएगा। यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू होने पर उत्तराखंड में सभी धर्म के मानने वालों के लिए एक जैसे सिविल कानून होंगे। किसी धर्म का पर्सनल लॉ लागू नहीं होगा। शादी, तलाक, विरासत और गोद लेने जैसे मामलों के लिए सबको एक ही कानून का पालन करना होगा। हालांकि उत्तराखंड के पूर्व चीफ मिनिस्टर हरिश रावत ने कहा कि यह बीजेपी की साजिश है। बीजेपी उत्तराखंड को कम्युनल पॉलिटिक्स का टेस्टिंग ग्राउंड बना रही है, यह ठीक नहीं है।

क्या है यूनिफॉर्म सिविल कोड?

यूनिफॉर्म सिविल कोड को हिंदी में समान नागरिक संहिता या समान नागरिक कानून भी कहते हैं। इसका मतलब होता है कि सभी धर्म, पंथ और जाति के लोगों के लिए एक समान कानून। भारत में फिलहाल सभी धर्म के लोगों के लिए क्रिमिनल लॉ समान है, लेकिन इसमें सिर्फ अपराध आते हैं। मान लीजिए अगर किसी ने मर्डर किया है, चाहे वह किसी भी धर्म का हो, उसके लिए सजा समान होगी। लेकिन सिविल लॉ के मामले में स्थिति काफी अलग है। सिविल लॉ को आप आसान भाषा में फैमिली लॉ भी कह सकते हैं यानी ऐसे मामले जो व्यक्ति बनाम व्यक्ति के बीच होते हैं। उदाहरण के लिए, शादी-विवाह का मामला व्यक्ति बनाम व्यक्ति के बीच होता है। इसलिए ऐसे मामले सिविल लॉ के दायरे में आते हैं। इसके अलावा शादी के बाद होने वाला तलाक, तलाक के बाद पत्नी को मिलने वाला गुजारा भत्ता, अगर बच्चे हैं तो तलाक के बाद वह किसके साथ रहेंगे? माता-पिता या पति की मृत्यु के बाद उनकी संपत्ति का बंटवारा कैसे होगा? इस संपत्ति में किसको कितना अधिकार मिलेगा? बच्चों को गोद लेने का कानून क्या होगा? गोद लिए गए बच्चों के और उसे गोद लेने वाले माता-पिता के क्या अधिकार होंगे? अगर कोई व्यक्ति बिना अपनी वसीयत लिखे मर जाए तो उसकी संपत्ति में किसका कितना हक होगा? यह सारे फैसले सिविल लॉ के हिसाब से लिए जाते हैं। अगर भारत में इस तरह के सिविल मामलों के निपटारे के लिए कोई एक कानून होता तो शायद इस पर कोई विवाद ही नहीं होता, लेकिन भारत में आज की स्थिति बहुत अलग है।

क्या है पर्सनल लॉ?
भारत में शादी, तलाक और संपत्ति जैसे मामलों के लिए हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध धर्म के लोग एक समान कानून के दायरे में आते हैं। लेकिन इन्हीं मामलों के निपटारे के लिए भारत में मुस्लिम, ईसाई, पारसी और यहूदी धर्म के लोगों के पास अपने पर्सनल लॉ हैं, यानी उनपर दूसरे कानून लागू होते हैं। पर्सनल लॉ का मतलब उन कानून से है, जो व्यक्तिगत हिसाब से चलते हैं। अगर कोई व्यक्ति मुस्लिम है तो उसकी शादी, तलाक और संपत्ति से जुड़े मामलों का निपटारा मुस्लिम पर्सनल लॉ के हिसाब से होगा और अगर कोई व्यक्ति ईसाई, पारसी या यहूदी धर्म से है तो इन धर्म में ऐसे मामलों का निपटारा उनके धर्म के पर्सनल लॉ के हिसाब से होगा। यानी पर्सनल लॉ किसी व्यक्ति की पहचान से जुड़ा होता है, उसके धर्म से जुड़ा होता है और उसके धर्म में जो नियम व कानून बनाए गए हैं, उसके हिसाब से चलता है। पूरी दुनिया में भारत शायद इकलौता ऐसा देश है, जो अपने आप को धर्मनिरपेक्ष भी कहता है और जहां कानून ही धर्म के हिसाब से बंटा हुआ है।

नागरिकों के अधिकारों में कितनी असमानता
1- शादी: अभी तक देश में हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध धर्म के लोग एक से ज्यादा विवाह नहीं कर सकते। अगर वह दूसरी शादी करते हैं तो अपनी पहली पत्नी को तलाक देना पड़ेगा। अगर बिना तलाक दिए बिना दूसरी शादी कर लेता है तो इसे अपराध माना जाता है और ऐसे मामलों में 10 साल की सजा हो सकती है, जबकि इस्लाम धर्म में ऐसा बिल्कुल नहीं है। मुस्लिम पर्सनल लॉ के मुताबिक एक व्यक्ति बिना तलाक लिए ही चार शादियां कर सकता है।
2- लड़की की शादी की उम्र: इसी तरह हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध धर्म में लड़कियों को 18 साल की उम्र में बालिग माना जाता है और अगर इससे पहले इन धर्म में किसी लड़की की शादी कर दी जाती है तो इसे गैर-कानूनी माना जाता है। पुलिस ऐसे मामलों में शिकायत मिलने पर कानूनी कार्रवाई कर सकती है, लेकिन इस्लाम धर्म में मुस्लिम पर्सनल लॉस के मुताबिक, 15 साल की उम्र में ही मुस्लिम लड़की की शादी हो सकती है और इसे जायज माना जाता है।

3- तलाक: मुस्लिम पर्सनल लॉ में पहले तीन तलाक की भी व्यवस्था थी, जिसमें पति तीन बार अगर तलाक-तलाक-तलाक कहकर अपनी पत्नी से अलग हो जाता था, लेकिन मोदी सरकार इस तीन तलाक को समाप्त कर चुकी है, लेकिन कुछ समय पहले तक यह बाकायदा पूरा इसका प्रावधान था और यह चलता था।
4. तलाक के बाद गुजारा-भत्ता: हिंदू, सिख, जैन और बुद्ध धर्म में तलाक के बाद पत्नी अपने पति से गुजारा भत्ता मांग सकती है, लेकिन मुस्लिम पर्सनल लॉ में इसे लेकर अब भी ज्यादा स्पष्ट नहीं है। आज अगर किसी मुस्लिम महिला का तलाक होता है तो तलाक होने के चार महीने और 10 दिन तक मुस्लिम पुरुष अपनी पत्नी को थोड़ा बहुत गुजारा भत्ता देते हैं, लेकिन उसके बाद गुजारा भत्ता के लिए कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है। जबकि हिंदू धर्म में महिलाओं को तलाक के बाद गुजारा भत्ता मांगने का पूरा अधिकार दिया गया है।

5. संपत्ति में हक: इसी तरह हिंदू धर्म में महिलाओं को अपने पिता और अपने पति की संपत्ति में बराबर का अधिकार मिलता है और विधवा महिला को भी उसके पति की संपत्ति में बराबर अधिकार होता है, लेकिन इस्लाम धर्म में ऐसा नहीं है। मुस्लिम पर्सनल लॉ में बेटों की तुलना में बेटियों की अपने माता-पिता की संपत्ति में आधा अधिकार ही होता है। मान लीजिए अगर किसी मुस्लिम माता-पिता का एक बेटा और एक बेटी है, अगर बेटे को संपत्ति में ₹50 मिले तो बेटी को उसके आगे यानी ₹25 मिलेंगे। वहीं हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध धर्म में बेटे और बेटी को अपने माता-पिता की संपत्ति में बराबर का अधिकार मिलता है।
6- बच्चे का पैतृक संपत्ति में अधिकार: इसके अलावा मुस्लिम पर्सनल लॉ में यह भी बताया गया है कि किसी भी बच्चे को जन्म के साथ अपने परिवार की पैतृक संपत्ति में कोई अधिकार नहीं मिलता, यह अधिकार उन्हें तभी मिलता है, जब परिवार में पिता या माता में से किसी एक की मृत्यु हो जाए और उनकी मृत्यु के बाद उनकी संपत्ति का बंटवारा होता है। हिंदू धर्म में अगर किसी पुरुष को शादी से बाहर किसी दूसरी महिला से बच्चे पैदा होते हैं तो उन बच्चों का अपने पिता की संपत्ति में बराबर का अधिकार होता है, लेकिन क्रिश्चियन पर्सनल लॉ में ऐसे बच्चों को पिता की संपत्ति में कोई अधिकार नहीं मिलता।

7- तलाक के बाद फिर शादी: हिंदू धर्म में अगर कोई महिला तलाक लेने के बाद फिर से अपने पूर्व पति के साथ रिश्ता शुरू करना चाहती है तो वह दोबारा विवाह करके ऐसा कर सकती है, लेकिन इस्लाम में ऐसा नहीं है। मुस्लिम पर्सनल लॉ में मुस्लिम महिला को ऐसा करने के लिए पहले किसी दूसरे शख्स से निकाह करना पड़ेगा और फिर उसे तलाक देने के बाद वह अपने पूर्व पति के साथ दोबारा रिश्ते में आ सकती है।
8- लड़की का शादी के लिए मुस्लिम होना जरूरी: मुस्लिम पर्सनल लॉ में यह भी बताया गया है कि एक मुस्लिम पुरुष का निकाह एक मुस्लिम महिला से ही हो सकता है, लेकिन अगर कोई मुस्लिम पुरुष किसी हिंदू या दूसरे धर्म की महिला से निकाह करता है तो यह निकाह मान्य नहीं होगा और ऐसी स्थिति में जब तक वह गैर मुस्लिम लड़की अपना धर्म छोड़कर इस्लाम धर्म नहीं अपनाएगी तब तक वह विवाह मान्य होगा ही नहीं।

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